दालान के नीचे छिपा सपना,
पुराने घर की सीलन से लिपटा,
मिट्टी का चूल्हा सिसक रहा,
धुआँ आँखों में बस गया है।
बुनी थी जो यादें, उन गलियों में,
वो अब भी बिखरी हैं सन्नाटों में,
कभी चूल्हे की आंच में तपतीं,
कभी सीलन की नमी में भटकतीं।
दरवाज़े की चरमराहट में,
बीते लम्हों की आहट है,
उन कोनों में गुज़रे दिनों की,
खामोशियों की बगावत है।
छत पर टपकता पानी कहता,
कहानियाँ उन पुरानी दीवारों की,
जहाँ हर ईंट पर लिखा है,
सपनों का हिसाब किताब।
दालान के नीचे छिपा सपना,
अब भी है वहीं कहीं दबा,
चूल्हे की राख में ढूंढ़ता,
वो बिछड़ा हुआ सिलसिला।
योगेश ' योगी'