Saturday, June 8, 2024

गलियाँ

 मेरे कुछ भाव शब्दों के साथ ज़िंदगी का एक नज़रिया पेश है -

विषय - गलियाँ
बुनती कहानी हर भीगी शाम,
चीखती दीवारें, जैसे
बीते लम्हों का विराम।
सिकुड़ती सांसें, जैसे
रुक-रुक कर चले
एक अनजाना पैगाम।
अंधेरी गुप्प गलियां, जैसे
अनकहे राज़ों का
सदियों से है मुकाम।
सुनी अंखियां, बोले सन्नाटे,
जैसे छुपे हुए जज्बात,
आंखों में है बयां इलजाम।
टूटी खिड़कियाँ, जैसे
अधूरी उम्मीदें,
किसी सपने का अंजाम।
बेजान लम्हे, जैसे
अधूरे अरमान,
दिल के किसी कोने में गुमनाम।
यह शहर की चुप्पी, जैसे
अनकही कहानियाँ,
हर गली का है अपना कुहराम।
- योगेश 'योगी'

Thursday, June 6, 2024

 हास्य रस के साथ कल की कहानी

कुर्सी देवी
तारीख चार को चुनाव परिणाम आएगा,
देश का भविष्य फिर से लिखा जाएगा।
नेताओं के छुट रहे पसीने,
टेम्परेचर हुआ जाता है हाइ,
हर कोई पूछे, "कितनी गर्मी है भाई?"
कहीं जीत की खुशी में ढोल बज रहे हैं,
तो कहीं मायूसी में चेहरे लटके हुए हैं।
नेता जी बोले, "ये जनता का प्यार है,"
पर सच तो ये है, कुर्सी का ही बुखार है।
वोटों की गिनती में सबकी जान अटकी,
गिन-गिन के वोट, सबके हाथ पक्के।
पान वाले ने कहा, "चाय फ्री में मिलेगी,"
तो चायवाले ने हंस कर कहा,
"नहीं भई, ये तो सियासत की चाल है,
टेलीविजन पर एंकर चिल्लाए,
"बड़ा ही रोमांचक खेल हो रहा है,"
कहीं जश्न की मिठाई बांटी जा रही,
तो कहीं ग़म में बिरयानी सुस्ता रही।
नेताओं की रैली में ट्रैफिक जाम हो गया,
टेम्परेचर से हर कोई परेशान हो गया।
कोई बोला, "जीत के बाद नेता मिलेंगे,"
दूसरा बोला, "बस बैनरों पर ही दिखेंगे।"
तारीख चार को चुनाव परिणाम आएगा,
देश का भविष्य फिर से लिखा जाएगा।
नेताओं के छुट रहे पसीने,
टेम्परेचर हुआ जाता है हाइ,
कहीं जीत की खुशी, तो कहीं मायूसी छाई।
- योगेश ' योगी '

 आज विश्व


पर्यावरण दिवस है,

अन्तस में पीड़ा है, हम धीमे धीमे बहुत कुछ खोते जा रहे है।
जागरूकता हेतु मैने आज ये चित्र विषय " तपिश"और भाव शब्द रचे हैं, समर्थन की चाह है, ज्यादा से ज्यादा शेयर करें ।
**नदी की छाती पर रेत का बोझ**
**पहाड़ की पुकार में पत्थरों का शोर**
**पेड़ की शाखों में लकड़ी का दर्द**
**खेत की गोद में नकद की भूख**
उलीच ली रेत, खोद लिए पत्थर,
काट दिए पेड़, तोड़ दी मेड़।
रेत से पक्की सड़क, पत्थर से मकान,
लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे सजाकर,
अब भटक रहे हैं।
सूखे कुओं में झांकते,
रीती नदियों को ताकते,
लू के थपेड़ों में झाड़ियां खोजते,
बिना छाया के ही हो जाती सुबह से शाम।
गली-गली ढूंढ़ रहे हैं ऑक्सीजन,
फिर भी सब बर्तन खाली।
सोने के अंडे के लालच में,
मानव ने मुर्गी मार डाली।
**आसमान की ओर देखते हैं अब,**
**पर वहां भी बादलों का घर खाली।**
**धरती की छाती से निकलीं आहें,**
**पर उन आहों में भी गूंजती हैं सिर्फ़ ख़ामोशियाँ।**
**हरियाली के सपनों में उलझे,**
**अब भी हम समझ नहीं पाए,**
**कि इस दौलत की अंधी दौड़ में,**
**हमने क्या-क्या खो दिया, क्या-क्या गवां दिया।**
**नदी की लहरें रेत से दब गईं,**
**पहाड़ की चोटियां पत्थरों में बिखर गईं,**
**पेड़ों की छांव लकड़ी में जल गईं,**
**खेत की मिट्टी नकद में बह गईं।**
**अब हमें चाहिए, फिर से वो पानी,**
**नदी का मीठा, पहाड़ का सुकून,**
**पेड़ की छांव, खेत की सौंधी महक।**
**पर शायद अब, वो सपने ही रह गए हैं।**
**इस कड़वी सच्चाई में हम सभी हैं क़ैद,**
कब छूटेंगे तृष्णा से, जाने न भेद ,
गली-गली ढूंढ़ रहे हैं पानी,
फिर भी सब बर्तन खाली।
सोने के अंडे के लालच में,
मानव ने मुर्गी मार डाली।