Thursday, June 6, 2024

 आज विश्व


पर्यावरण दिवस है,

अन्तस में पीड़ा है, हम धीमे धीमे बहुत कुछ खोते जा रहे है।
जागरूकता हेतु मैने आज ये चित्र विषय " तपिश"और भाव शब्द रचे हैं, समर्थन की चाह है, ज्यादा से ज्यादा शेयर करें ।
**नदी की छाती पर रेत का बोझ**
**पहाड़ की पुकार में पत्थरों का शोर**
**पेड़ की शाखों में लकड़ी का दर्द**
**खेत की गोद में नकद की भूख**
उलीच ली रेत, खोद लिए पत्थर,
काट दिए पेड़, तोड़ दी मेड़।
रेत से पक्की सड़क, पत्थर से मकान,
लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे सजाकर,
अब भटक रहे हैं।
सूखे कुओं में झांकते,
रीती नदियों को ताकते,
लू के थपेड़ों में झाड़ियां खोजते,
बिना छाया के ही हो जाती सुबह से शाम।
गली-गली ढूंढ़ रहे हैं ऑक्सीजन,
फिर भी सब बर्तन खाली।
सोने के अंडे के लालच में,
मानव ने मुर्गी मार डाली।
**आसमान की ओर देखते हैं अब,**
**पर वहां भी बादलों का घर खाली।**
**धरती की छाती से निकलीं आहें,**
**पर उन आहों में भी गूंजती हैं सिर्फ़ ख़ामोशियाँ।**
**हरियाली के सपनों में उलझे,**
**अब भी हम समझ नहीं पाए,**
**कि इस दौलत की अंधी दौड़ में,**
**हमने क्या-क्या खो दिया, क्या-क्या गवां दिया।**
**नदी की लहरें रेत से दब गईं,**
**पहाड़ की चोटियां पत्थरों में बिखर गईं,**
**पेड़ों की छांव लकड़ी में जल गईं,**
**खेत की मिट्टी नकद में बह गईं।**
**अब हमें चाहिए, फिर से वो पानी,**
**नदी का मीठा, पहाड़ का सुकून,**
**पेड़ की छांव, खेत की सौंधी महक।**
**पर शायद अब, वो सपने ही रह गए हैं।**
**इस कड़वी सच्चाई में हम सभी हैं क़ैद,**
कब छूटेंगे तृष्णा से, जाने न भेद ,
गली-गली ढूंढ़ रहे हैं पानी,
फिर भी सब बर्तन खाली।
सोने के अंडे के लालच में,
मानव ने मुर्गी मार डाली।

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