Friday, June 28, 2024

"रहस्यवादी रात" पुरानी रचना

 2018 में लिखी "शहर" शृंखला की भाव रचना आपकी नज़र ....

"रहस्यवादी रात"
मैं इस रात से परिचित हूँ, बारिश में भीग गया,
शहर की दूर की रोशनी से आगे निकल गया।
उदास गली के साए में, देखा मैंने अद्भुत,
चौकीदार की ड्यूटी, निगाहें झुकीं थीं मगर।
समझने-समझाने को, मन नहीं था तैयार,
पैरों की आवाज़ रुकी, स्थिर खड़ा निर्बाध।
दूर से आई चीख, घरों के ऊपर गूँजी,
न मुझे बुलाने को, न अलविदा कहने को।
आगे की अलौकिक ऊँचाई, आकाश के समक्ष,
चमकती घड़ी की धारा, समय की अटल घोषणा।
न समय सही, न गलत, सत्य की है ये रात,
रहस्यवादी भावों में, घिरी है यह बात।
इस रात का संग मुझे, अद्भुत एहसास दिलाए,
गहराई में ओतप्रोत, अज्ञात सा भाव सजाए।
रहस्य की छांव में, बुनते हम कहानी,
रात की इस माया में, सब कुछ है निराली।
मैं इस रात से परिचित हूँ, बारिश में भीग गया,
शहर की दूर की रोशनी से आगे निकल गया।
समय की घड़ी चमके, सत्य की छाया में,
रहस्यवादी रात का, जादू है समाया इसमें।
- योगेश 'योगी'



Wednesday, June 26, 2024

साया

इंतजार में तड़पती रही, रूह भी बेकरार क्यों राहों में बिछे कांटे, मुझसे दूर मेरा प्यार क्यों

शेर

नीगाहें हर पल ढूंढें, साया तेरा हर ओर

दिल में लगी आग, बुझाने आया तू किस ओर चाँदनी रात में तन्हाई, तेरे बिन ना चैन आए सन्नाटे की आहट में, तेरी आवाज़ क्यों ना आए दिन गुज़रें और रातें, इंतजार में हैं ढलती यादों की परछाईं, आँखों में क्यूं हैं जलती हर मोड़ पर ढूँढा तुझे, हर गली और हर डगर तेरे बिन ये जिन्दगी, लगती है जैसे बसर

मकता:

' योगी' की यह गजल, दिल से निकली है पुकार
इंतजार की इन राहों में, कब होगी मुलाकात यार
योगेश ' योगी '

नयन

नयनों की भाषा में बात करें,  
शब्दों से आगे कुछ खास कहें।  
सागर की तरह गहरी हो बातें,  
दिल की गहराइयों से जज़्बात कहें।

कभी खामोशी से कहानी कहें,  
कभी आंसुओं से जुबां सजीव करें।  
नयनों की भाषा में लिखें शायरी,  
हर नजर में हो एक सफर फूल झरें।

कभी इश्क़ की मिठास हो उनमें,  
कभी दर्द की चुभन भी हो उनमें ।  
 चित्रकार की तरह हों मायने,  
नज़र सा नया अफसाना हो उनमें।
          योगेश योगी

Saturday, June 8, 2024

गलियाँ

 मेरे कुछ भाव शब्दों के साथ ज़िंदगी का एक नज़रिया पेश है -

विषय - गलियाँ
बुनती कहानी हर भीगी शाम,
चीखती दीवारें, जैसे
बीते लम्हों का विराम।
सिकुड़ती सांसें, जैसे
रुक-रुक कर चले
एक अनजाना पैगाम।
अंधेरी गुप्प गलियां, जैसे
अनकहे राज़ों का
सदियों से है मुकाम।
सुनी अंखियां, बोले सन्नाटे,
जैसे छुपे हुए जज्बात,
आंखों में है बयां इलजाम।
टूटी खिड़कियाँ, जैसे
अधूरी उम्मीदें,
किसी सपने का अंजाम।
बेजान लम्हे, जैसे
अधूरे अरमान,
दिल के किसी कोने में गुमनाम।
यह शहर की चुप्पी, जैसे
अनकही कहानियाँ,
हर गली का है अपना कुहराम।
- योगेश 'योगी'

Thursday, June 6, 2024

 हास्य रस के साथ कल की कहानी

कुर्सी देवी
तारीख चार को चुनाव परिणाम आएगा,
देश का भविष्य फिर से लिखा जाएगा।
नेताओं के छुट रहे पसीने,
टेम्परेचर हुआ जाता है हाइ,
हर कोई पूछे, "कितनी गर्मी है भाई?"
कहीं जीत की खुशी में ढोल बज रहे हैं,
तो कहीं मायूसी में चेहरे लटके हुए हैं।
नेता जी बोले, "ये जनता का प्यार है,"
पर सच तो ये है, कुर्सी का ही बुखार है।
वोटों की गिनती में सबकी जान अटकी,
गिन-गिन के वोट, सबके हाथ पक्के।
पान वाले ने कहा, "चाय फ्री में मिलेगी,"
तो चायवाले ने हंस कर कहा,
"नहीं भई, ये तो सियासत की चाल है,
टेलीविजन पर एंकर चिल्लाए,
"बड़ा ही रोमांचक खेल हो रहा है,"
कहीं जश्न की मिठाई बांटी जा रही,
तो कहीं ग़म में बिरयानी सुस्ता रही।
नेताओं की रैली में ट्रैफिक जाम हो गया,
टेम्परेचर से हर कोई परेशान हो गया।
कोई बोला, "जीत के बाद नेता मिलेंगे,"
दूसरा बोला, "बस बैनरों पर ही दिखेंगे।"
तारीख चार को चुनाव परिणाम आएगा,
देश का भविष्य फिर से लिखा जाएगा।
नेताओं के छुट रहे पसीने,
टेम्परेचर हुआ जाता है हाइ,
कहीं जीत की खुशी, तो कहीं मायूसी छाई।
- योगेश ' योगी '

 आज विश्व


पर्यावरण दिवस है,

अन्तस में पीड़ा है, हम धीमे धीमे बहुत कुछ खोते जा रहे है।
जागरूकता हेतु मैने आज ये चित्र विषय " तपिश"और भाव शब्द रचे हैं, समर्थन की चाह है, ज्यादा से ज्यादा शेयर करें ।
**नदी की छाती पर रेत का बोझ**
**पहाड़ की पुकार में पत्थरों का शोर**
**पेड़ की शाखों में लकड़ी का दर्द**
**खेत की गोद में नकद की भूख**
उलीच ली रेत, खोद लिए पत्थर,
काट दिए पेड़, तोड़ दी मेड़।
रेत से पक्की सड़क, पत्थर से मकान,
लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे सजाकर,
अब भटक रहे हैं।
सूखे कुओं में झांकते,
रीती नदियों को ताकते,
लू के थपेड़ों में झाड़ियां खोजते,
बिना छाया के ही हो जाती सुबह से शाम।
गली-गली ढूंढ़ रहे हैं ऑक्सीजन,
फिर भी सब बर्तन खाली।
सोने के अंडे के लालच में,
मानव ने मुर्गी मार डाली।
**आसमान की ओर देखते हैं अब,**
**पर वहां भी बादलों का घर खाली।**
**धरती की छाती से निकलीं आहें,**
**पर उन आहों में भी गूंजती हैं सिर्फ़ ख़ामोशियाँ।**
**हरियाली के सपनों में उलझे,**
**अब भी हम समझ नहीं पाए,**
**कि इस दौलत की अंधी दौड़ में,**
**हमने क्या-क्या खो दिया, क्या-क्या गवां दिया।**
**नदी की लहरें रेत से दब गईं,**
**पहाड़ की चोटियां पत्थरों में बिखर गईं,**
**पेड़ों की छांव लकड़ी में जल गईं,**
**खेत की मिट्टी नकद में बह गईं।**
**अब हमें चाहिए, फिर से वो पानी,**
**नदी का मीठा, पहाड़ का सुकून,**
**पेड़ की छांव, खेत की सौंधी महक।**
**पर शायद अब, वो सपने ही रह गए हैं।**
**इस कड़वी सच्चाई में हम सभी हैं क़ैद,**
कब छूटेंगे तृष्णा से, जाने न भेद ,
गली-गली ढूंढ़ रहे हैं पानी,
फिर भी सब बर्तन खाली।
सोने के अंडे के लालच में,
मानव ने मुर्गी मार डाली।

Friday, May 31, 2024

यादें


दालान के नीचे छिपा सपना,
पुराने घर की सीलन से लिपटा,
मिट्टी का चूल्हा सिसक रहा,
धुआँ आँखों में बस गया है।

बुनी थी जो यादें, उन गलियों में,
वो अब भी बिखरी हैं सन्नाटों में,
कभी चूल्हे की आंच में तपतीं,
कभी सीलन की नमी में भटकतीं।

दरवाज़े की चरमराहट में,
बीते लम्हों की आहट है,
उन कोनों में गुज़रे दिनों की,
खामोशियों की बगावत है।

छत पर टपकता पानी कहता,
कहानियाँ उन पुरानी दीवारों की,
जहाँ हर ईंट पर लिखा है,
सपनों का हिसाब किताब।

दालान के नीचे छिपा सपना,
अब भी है वहीं कहीं दबा,
चूल्हे की राख में ढूंढ़ता,
वो बिछड़ा हुआ सिलसिला।

योगेश ' योगी'